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मंगल सूत्र

बृजलाल हांडा

प्रकाशक : सावित्री प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4924
आईएसबीएन :81-7902-038-x

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास.....

Mangal sootra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक

उसका नाम चंदन था। गर्मी की छुट्टियों में अपनी माँ के साथ वह अपने ननिहाल आया था। उसके दोनों मामा शादी के उपरांत अपनी-अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त थे। घर में उसका हम उम्र अन्य कोई बच्चा नहीं था। शाम के समय साफ-सुथरे कपड़े पहनकर वह अकेला ही घूमने निकल गया। गाँव के बाहर पोखर के पास जब पहुँचा तो वहाँ उसने एक लड़की को सिसक-सिसक कर रोते हुए पाया। लड़की उसकी हम उम्र प्रतीत होती थी। लड़की के पास जाकर वह बोला, ‘‘तुम क्यों रो रही हो ?’’ लड़की ने उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। आँखें मलते हुए वह गाँव की ओर वापस जाने लगी। बीच-बीच में उसकी सिसकियों का स्वर भी वायुमण्डल में उबर उठता। उस युवती का अनुसरण करते हुए वह बोला, ‘‘मेरा नाम चंदन है। इस गाँव में मेरा ननिहाल है। गर्मियों की छुट्टियों में मैं यहाँ आया हूँ। क्या तुम भी स्कूल में पढ़ती है ?’’ मुँह से कोई शब्द कहे बिना उसने अपना सिर हिला दिया मानो कहना चाह रही हो, ‘हाँ, मैं भी स्कूल में पढ़ती हूँ।’
‘‘छुट्टी के दिन अपने गाँव में कितना मजा आता था ? दिन-भर हम लोग खूब मौज-मस्ती करते थे। कल्लू के बगीचे से आम चुराकर चोरी-छिपे खाते थे। इस गाँव में तो मेरा कोई साथी नहीं है।’’

उसका यह कथन सुनकर वह लड़की ठिठक कर अपने स्थान पर खड़ी हो गई। कौतूहल दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए वह बोली, ‘‘क्या आम चुराते हुए तुम्हें डर नहीं लगता ?’’
‘‘किस बात का डर ?’’ आत्मविश्वास-भरे स्वर में उसने पूछा।
‘‘चोरी करते हुए रँगे हाथों पकड़े जाने का।’’
‘‘कल्लू के बगीचे से न जाने मैंने कितनी बार आम चुराये। आज तक एक बार पकड़ा नहीं गया।’’
‘‘मान लो आम चुराते हुए तुम्हें कल्लू पकड़ लेता है।’’
‘‘तब की तब देखी जाएगी। पकड़ लेने पर भी वह क्या कर लेगा ? एक-दो हाथ रशीद कर देगा या ज्यादा-से-ज्यादा घरवालों से शिकायत कर देगा।’’

‘‘क्या तुम्हें मार से डर नहीं लगता ?’’
अभी तक मार खाने की नौबत नहीं आयी है। मेरी माँ मुझसे बहुत प्यार करती हैं। मैं उनका इकलौता बेटा हूँ। बाबू जी बाहर से बड़े सख्त हैं, परन्तु भीतर-ही-भीतर वे भी मुझे बहुत प्यार करते हैं। क्या तुमने कभी किसी के बगीचे से आम चुराये हैं ?’’
‘‘नहीं। मुझे डर लगता है।’’
‘‘किस बात का डर ?’’

‘पकड़े जाने का।’’
‘‘आम की चोरी भला क्या चोरी होती है ? फिर हमें आम चुराते हुए कोई कैसे पकड़ सकता है। क्या इस गाँव में आम का कोई बगीचा है ?’’
‘‘एक नहीं बल्कि दो-दो हैं।’’
‘‘क्या आम चुराने में तुम मेरा साथ दोगी। सच कहता हूँ कि इस खेल में बड़ा मजा आयेगा।’’
‘‘अगर कहीं पकड़े गये तो ?’’
‘‘इसकी चिंता तुम मत करो। तुम बगीचे के बाहर खड़ी रहना। बगीचे के भीतर आम तोड़ने मैं जाऊँगा। तुम्हें एक काम करना होगा।’’
‘‘कौन-सा काम ?’’

‘‘अगर बगीचे की ओर आता हुआ कोई आदमी तुम्हें नजर आये तो जल्दी से मुँह से सीटी बजा देना। तुम्हारी सीटी की आवाज सुनते ही मैं वहाँ से नौ-दो ग्यारह हो जाऊँगा।’’
‘पर मुझे तो मुँह से सीटी बजानी नहीं आती।’’
‘‘यह बहुत सरल है। अपने दोनों होठों को गोल कर भीतर से बाहर को हवा निकालो खुद-ब-खुद सीटी बन जायेगी।’’
उसके बताए अनुसार तीन-चार बार उसने सीटी बजाने का अभ्यास किया, परन्तु असफल रही।
‘‘तुम्हें घर में सीटी बजाने का अभ्यास बार-बार करना चाहिए। शीघ्र ही मेरी तरह ही तुम भी सीटी बजाने लग जाओगी।’’ यह कहते हुए उसने पूरे जोर से मुँह से हवा में सीटी की आवाज निकाली। उसकी ओर प्रशंसा-भरी दृष्टि से देखे हुए बोली, ‘‘मुझे सीटी बजाना नहीं आता। फिर मैं तुम्हें सचेत कैसे करूँगी ?’’
‘‘क्या तुम्हें उल्लू की आवाज निकालना आता है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘लोमड़ी की ?’’

‘‘वह भी नहीं।’’
‘‘कुत्ते की ?’’
उसकी बात का कोई उत्तर दिए बिना उसके मुंह से कुत्ते के भौंकने की आवाज निकालना शुरु कर दिया। उसे आश्वस्त करता हुआ वह बोला, ‘‘यह ठीक है। तुम्हारी यह आवाज सुनकर मैं समझ जाऊँगा कि हमारा कोई दुश्मन आ रहा है। मैं वहाँ से सरपट भाग जाऊँगा।’’
‘‘भागने के बाद तुम मुझसे कहाँ मिलोगे ?’’
‘इस बात को तय करना तो भूल ही गया था। तुम सामने वाले इस पेड़ के चबूतरे पर बैठ जाना।’’
‘‘न बाबा, रात के अँधेरे में पेड़ के चबूतरे पर बैठने से मुझे भय लगता है।’’
‘‘किस चीज का भय ?’’

‘‘मेरा भइया कहता है कि रात के समय पेड़ों के ऊपर आत्माएँ रहती हैं। जिस किसी इंसान से वे एक बार चिपक जाती हैं, वह इंसान पागल हो जाता है।’’
‘मैं इस बात को नहीं मानता। रात कई बार आम चुराने के लिए मैंने अपने दोस्तों के साथ पेड़ पर चढ़ा हूँ। खैर, उस बात को जाने दो। मैं एक काम करूँगा। इस पेड़ के तनें में जो सुराख है उसके भीतर तुम्हारे हिस्से के आम रख दूँगा। सुबह आकर तुम उन आमों को ले जाना।’’
‘मेरे यहाँ पहुँचने से पहले और कोई भी तो उन आमों को ले जा सका है।’’
‘‘किसी को आमों के बारे में पता कैसे चलेगा ? सुराख के मुहाने पर मैं एक पत्थर रख दूँगा।’’ उसके इस समाधान से संतुष्ट होकर वह बोली, ‘‘हाँ, यह ठीक है।’’
‘‘पहले यह तो बताओ कि आम के ये बगीचे कहाँ हैं ?’’
‘‘एक बगीचा सूरज बन्धुओं का है। वे बड़े खतरनाक किस्म के लोग हैं। गाँव के सभी लोग उनसे डरते हैं।’’
‘‘दूसरे बगीचे के मालिक कौन हैं ?’’

‘‘उसका नाम चाँद बंधु है। वे लोग इतने बुरे नहीं हैं। फिर भी चोरी पर वे नाराज होकर मार-पिटाई कर सकते हैं।’’ उसका यह कथन सुनकर मुस्कराते हुए वह बोला, ‘‘मेरा नाम चंदन है। कोई माई का लाल मुझे पकड़ कर तो देखे।’’
उसकी बहादुरी के बारे में धीरे-धीरे वह आश्वस्त होने लगी थी।
‘‘क्या मैं तुम्हें सूरज बन्धुओं के बगीचे का रास्ता मालूम है ?’’
स्वीकृति में उसने सिर हिला दिया।
‘‘चलो, वहीं चलते हैं।
बड़ी सतर्कता से वे दोनों उस बगीचे की ओर चलने लगे। जब वे दोनों बगीचे के निकट पहुँच गये तो उसे एक स्थान पर खड़े रहने के लिए कह कर उसने बगीचे के चारों ओर की परिक्रमा की। तत्पश्चात उसके पास आकर वह बोला, ‘मैंने इस जगह की पूरी तरह छान-बीन कर ली है। डरने की कोई बात नहीं है। तुम्हें अपनी वह बात याद है न ?’’
‘‘हाँ।’’ सिर हिलाकर उसने उत्तर दिया। गले में पहना हुआ तावीज चूमते हुए वह बोला, ‘‘जय बजरंगबली की। खतरे का आभास होते ही तुम अपने मुँह से वह आवाज निकाल देना। तुम्हारी आवाज सुनकर मैं सारी बात समझ जाऊँगा।’’
यह कह कर वह पीछे के रास्ते उसकी दृष्टि से ओझल हो गया।

गोधूलि बेला होने के कारण अँधेरे की परछाइयाँ धरती पर गोचर होने लगी थीं। झींगुरों की आवाज सुनकर उसका मन भय से दहल उठा। हवा चलने के कारण पेडों की टहनियाँ हिल रही थीं। सायंकाल के उस झुरमुट अंधेरे में अपने अवचेतन मन में उसे ऐसा लगा मानो कई लोगों ने उसे एकाएक चारों ओर से घेर लिया हो। वे लोग चिल्ला कर कह रहे हों, ‘‘चोर को पकड़ लिया है।’’

‘‘चोर मैं नहीं बल्कि चंदन है।’’
‘‘यहां कोई चंदन नहीं है ! चोरी करते हुए हमने तुमको पकड़ा है। सजा भी तुम्हें मिलेगी !’’
‘‘मैं सच कहती हूँ कि मेरे पास चोरी के आम नहीं हैं। आप चाहें तो मेरी खानातलाशी ले सकते हैं।’
‘‘हो सकता है तुमने आम न चुराए हों। परन्तु आम चुराने का तुम्हारा इरादा तो था।’’
‘‘आम चुराने के लिए चंदन ने मुझे कहा था।’’
‘‘हम किसी चंदन को नहीं जानते। तुम्हारा वह चंदन कहाँ है ?’’
उसका एक मन हुआ कि वह उसे बता दे कि वह आम चोरी करने के लिए बगीचे में भीतर गया है।

उसके यह बताने पर ये लोग उसे पकड़ लेंगे। हो सकता है उसकी जमकर पिटाई कर दें।
चंदन की पिटाई की संभावना से वह सिहर उठी। इस बीच धूल-भरी आंधी चलने लगी थी। अपनी ओर आते हुए किसी आदमी की आहट उसे अपने कानों में सुनाई देने लगी। उसका एक मन हुआ कि वह मुँह से आवाज निकाल कर वह चंदन को सचेत कर दे। उसकी उस आवाज को सुनकर वह व्यक्ति उस पर भी संदेह कर सकता था। अपने भीतर उमड़ते भय से विचलित होकर वह तेजी से अपने घर की ओर बढ़ने लगी। घर पहुँचकर उसने चैन की सांस ली। उसे देखकर माँ बोली, ‘‘आगे से शाम को जल्दी घर आ जाया करो।’’ कमरे के भीतर आने पर उसकी नजर चारपाई पर लेटे हुए भाई पर पड़ी। उसके घुटने पर चोट थी और दर्द से कराह रहा था। माँ ने उसके घुटने पर हल्दी का लेप लगा रखा था। मन-ही-मन वह अपने भाई से रुष्ट ही नहीं बल्कि क्रोधित भी थी। परन्तु उसका लहूलुहान घुटना देखकर उसका मन पसीज गया। उसके निकट आकर वह बोली, ‘‘तुम्हें यह चोट कैसे आई ?’’
‘‘मां से कुछ मत कहना, बहन।’’

‘‘मैं माँ को सबकुछ बता दूँगी।’’
‘‘माँ को तुम क्या बताओगी ?’
‘‘तुम अपने साथियों के साथ चाँद वालों के बगीचे में आम चोरी करने गये थे। वहीं पेड़ से फिसल कर नीचे गिर जाने के कारण तुम्हें यह चोट लगी है।’’
‘‘माँ को यह सब बताकर तुम्हें क्या मिलेगा ?’’
‘‘मेरे मन को शांति मिलेगी। अपने साथ तुम मुझे क्यों नहीं ले गये थे ?’’
‘‘पहरेदार के आने पर तुम तेजी से भाग नहीं सकती हो। मुझे तुम्हारे पकड़े जाने का डर था।’’
‘‘क्या तुम मुझे बुद्धू समझते हो ?’’
‘‘मेरी बहन तो चतुर है। तुम्हारे लिए मैं बगीचे से अमियाँ लाया हूँ। आगे से मैं तुम्हें अपने साथ ले जाया करूँगा।’’
‘‘सच कह रहे हो ?’’
‘‘हाँ।’’

‘‘अमियाँ कहाँ रखी हैं ?’’
‘‘पेड़ के नीचे छिपाई हैं। सुबह तुम्हें दूँगा।’’
इस बात पर उन दोनों में समझौता हो गया। खाना खाने के पश्चात् वे दोनों अपने-अपने बिस्तर पर लेट गये। बिस्तर पर लेटे-लेटे उसके मन में विचार आया, ‘क्या चंदन ने भी बगीचे से अमिया तोड़ी होंगी ?’’
‘उस बगीचे वाले लोग बड़े जालिम हैं। उसने बगीचे में एक नहीं बल्कि तीन-तीन पहरेदार रहते हैं। कहीं उन्होंने चंदन को पकड़ लिया होगा ?’’

‘‘पकड़ने पर वे उसकी जमकर धुनाई भी तो कर सकते हैं। अपनी इस दुर्गति के लिए वह उसे ही जिम्मेवार मानेगा।’
‘परंतु मैं क्या कर सकती थी ?’’
‘‘मुझे घर आने से पहले-पहले मुँह से वह आवाज निकालनी चाहिए थी। ऐसा करने पर मेरा फर्ज पूरा हो जाता। इससे आगे किसी भी बात के लिए मेरा कोई जिम्मा नहीं होता।’
रात को इस विषय पर सोचने के कारण कई बार उसकी नींद उचटी। सुबह उठने पर जब वह घर से बाहर गई तो उसे देखकर उसका भाई उसे एक कोने में ले गया। उसके हाथ में एक अमिया थमाते हए वह बोला, ‘‘मैं नमक भी अपने साथ लाया हूँ।’’ बड़े ध्यान से उसने उस अमिया की ओर देखा। मुँह बनाते हुए बोली, ‘‘यह भी क्या अमिया है ? इसका स्वाद भी तो कसैला होगा। इस प्रकार की अमिया मुझे नहीं चाहिए।’’


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